विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान धर्म तथा साधना ध्यान धर्म तथा साधनास्वामी व्योमानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान धर्म तथा साधना..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
(प्रथम संस्करण)
प्रस्तुत पुस्तक ‘धर्मप्रसंगे स्वामी ब्रह्मानन्द’ नामक
सुप्रसिद्ध बंगला पुस्तक का अनुवाद है। यह पुस्तक भगवान् श्रीरामकृष्णदेव
के ‘मानसपुत्र’ स्वामी ब्रह्मानन्दजी के बहुमूल्य
आध्यात्मिक
उपदेश-निर्देशों का संकलन है। युगावतार के इन
‘मानसपुत्र’ का
मन सदा अत्युच्च आध्यात्मिक भावभूमि पर विचरण किया करता था, साथ ही उनके
सामान्य दैनन्दिन क्रिया-कलापों से भी उनकी अन्तर्निहीत गम्भीर
आध्यात्मिकता की ही अभिव्यक्ति प्रकट होती थी। समय समय पर उनके श्रीमुख से
साधरण वार्तालाप के रूप में भी धर्म-जीवन की साधना एवं सिद्धि से
सम्बन्धित अत्यन्त गूढ़- गहन तत्त्व प्रकट होते है, जिन्हें सुनते हुए
भक्त श्रोताओं का मन एक उच्च आध्यात्मिक धरातल पर आरुढ़ हो जाता। सरल,
सुबोध भाषा में बड़ी आसानी से सुलझा देते थे और उनके मन में ईश्नरोपलब्धि
की तीव्र आकांक्षा के साथ-साथ साधन-भजन के प्रति प्रबल उत्साह भर देते थे।
साधकों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि कुछ साधु एवं भक्तों ने
महाराजजी के कुछ अमूल्य वार्तालाप में सुनकर लिपिबद्ध कर रखा था, जिन्हें
संकलित कर बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। इस पुस्तक में
महाराजजी के कुछ उपदेशपूर्ण पत्रों का भी समावेश किया गया एवं
श्रीरामकृष्ण तथा स्वामी ब्रह्मानन्द प्रभृति उनके लीलासहचरों के दुर्लभ
सत्संग के अधिकारी, भक्त साहित्यिक श्रीयुत देवेन्द्रनाथ बसु महाशय रचित
‘स्वामी ब्रह्मानन्द की संक्षिप्त जीवनी’ भी जोड़ दी गयी।
कहना न होगा , इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रकाशित होना अत्यंत आवश्यक था। वैसे, ‘पत्रावली’ को छोड़कर लगभग शेष सभी भागों का अनुवाद कुछ वर्ष पूर्व, श्रीरामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘विवेक-ज्योति’ में धारावाहिक रूप में आ चुका है। प्रभु की आसीम कृपा से अब सम्पूर्ण पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो जाने से हिन्दीभाषी पाठकों का एक बड़ा आभाव दूर हुआ।
हमें विश्वास है प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन पाठकों के लिए यथार्थतः कल्याणकारी सिद्ध होगा।
कहना न होगा , इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रकाशित होना अत्यंत आवश्यक था। वैसे, ‘पत्रावली’ को छोड़कर लगभग शेष सभी भागों का अनुवाद कुछ वर्ष पूर्व, श्रीरामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘विवेक-ज्योति’ में धारावाहिक रूप में आ चुका है। प्रभु की आसीम कृपा से अब सम्पूर्ण पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो जाने से हिन्दीभाषी पाठकों का एक बड़ा आभाव दूर हुआ।
हमें विश्वास है प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन पाठकों के लिए यथार्थतः कल्याणकारी सिद्ध होगा।
प्रकाशक
स्वामी विज्ञानानन्दजी के दो शब्द
श्रीराखाल महाराज का स्नेह और अनुग्रह हमें खूब प्राप्त हुआ। हमारे निकट
अपने मधुर शब्दों में श्रीठाकुर की उपदेशवाणी की वे कितनी चर्चा किया करते
थे ! देव-देवियों के बारे में उनका कहना था कि वे सचमुच ही विद्यमान हैं-
कल्पना का विषय नहीं। उन्हें उनके साक्षात् दर्शन होते तथा वे उनसे
वार्तालाप करते और उनके उत्तरों को सुनते। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि एक
ओर स्वामी जी (स्वामी विवेकानन्दजी) की निराकार अनुभूति तथा दूसरी ओर
राखाल महाराज के देवदेवियों के दर्शन-इन दोनों के माध्यम से ही हमें ईश्नर
के सम्यक् स्वरूप की उपलब्धि हो सकती है।
श्रीराखाल महाराज को मैं कोटिशः प्रणाम निवेदन करता हूं। मुझे विश्वास है उनके उपदेशों द्वारा निश्चित ही सबका महाकल्याण होगा और सबके मन का संशय-द्वन्द्व मिट जाएगा।
श्रीराखाल महाराज को मैं कोटिशः प्रणाम निवेदन करता हूं। मुझे विश्वास है उनके उपदेशों द्वारा निश्चित ही सबका महाकल्याण होगा और सबके मन का संशय-द्वन्द्व मिट जाएगा।
स्वामी विज्ञानानन्द
ध्यान, धर्म तथा साधना
स्वामी ब्रह्मानन्द-संक्षिप्त जीवनी
श्रीरामकृष्ण देव कहते थे, ‘राखाल मेरा पुत्र है-
मानसपुत्र।’
इसका अर्थ समझने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। किन्तु एक लौ से उसके ही
समान एक-दूसरी लौ का प्रज्वलित होना ही यदि इस वाणी का तात्पर्य हो, तो
पितापुत्र दोनों को देखने का असीम सौभाग्य जिन्हें मिला है वे ही कुछ अंश
तक श्रीरामकृष्णदेव के उपर्युक्त कथन की उपलब्धि कर सकेंगे।
जो लोग श्रीरामकृष्ण देव के इस मानसपुत्र के घनिष्ठ सम्पर्क में आये थे, वे कहते हैं कि महाराज* अमित ब्रह्मतेज सम्पन्न थे, उनकी बहुमुखी शक्ति स्रोतस्वती की भाँति शत-शत दिशाओं में प्रवाहित होती थी। किन्तु इतना तेज, इतनी शक्ति किस तरह मृण्मय आधार में इतनी शान्त रहती थी, इसे भला कोई कैसे जाने ? बिजली का तार देखने में तो निर्जीव है, किन्तु स्पर्श करने से मालूम पड़ता है कि उसमें कितनी अमोघ शक्ति छिपी है। कहते हैं कि ब्रह्मज्ञ पुरुष का शरीर मृण्मय नहीं होता-चिन्मय होता है। किन्तु इन चिन्मय पुरुष के संस्पर्श में आने से यह बात सहज ही समझ में नहीं आती थी। अहा, किस अलौकिक प्रेम से वे सबको भुलाने रखते थे !
जो भी इन पुरुषोत्तम के चरणों के निकट उपस्थित हुआ है- चाहे वह निर्मलचित्त साधु हो, भक्त हो या ब्रह्मचारी, चाहे जीवन के पापों से तप्त, दुःखी, पतित और कलंकित हो- उसने देखा है और अपने हृदय के भीतर इस सत्य की अनुभूति की है कि जिसके साथ बात करने में भी मन संकुचित होता है, ऐसे
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*श्रीरामकृष्ण संघ में जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द संक्षेप में ‘स्वामीजी’ के नाम से परिचित हैं, उसी प्रकार स्वामी ब्रह्मानन्द ‘महाराज’ के नाम से।
उपेक्षित व्यक्ति को भी महाराज अपनी स्नेह धारा में डुबो ले रहे है ! आत्मीय-स्वजन जिस व्यक्ति का नाम तक सुनने में संकुचित होते थे, उसकी भी पूछताछ महाराज कितने स्नेह-विगलित स्वर से करते थे ! जो अभागा सबके द्वारा परित्यक्त था, उसे भी महाराज ने कितने प्रेम से बाँधा था ! जिसके लिए कहीं भी स्थान नहीं, महाराज का द्वार उसके लिए सदैव खुला रहता था। इस उदार विश्वप्रेम के अमृत का आस्वादन करनेवाला सहसा यह धारणा नहीं कर पाता था इन निश्चिन्त. शान्त, शिवमय पुरुष महान, त्याग कठोर वैराग्य अतुलनीय तितिक्षा, कितना, ज्ञान, कितनी भक्ति, निष्काम कर्म के प्रति कैसी लगन है, जो संसार के मोह का निवारण करनेवाली एक महाशक्ति के उद्धोधन के लिए शान्त भाव से प्रतीक्षारत हैं ! भिक्षु उनकी अप्रत्याशित करुणा प्राप्त कर कृतार्थ हो लौटता था; ज्ञानी ज्ञान-चर्चा में उनकी इति नहीं कर सकता था; भक्त उस भक्तिसिन्धु में तैरकर किनारा नहीं पा सकता था; कर्मी कर्म-कौशल में उनसे हार मान लेता था; संशयी विश्वास-बल प्राप्त करता था; संसारी-धर्म का गूढ़ आर्थ समझ लेता था; रसिक उनकी रस-स्फूर्ति से हँसी से लोटपोट होने लगता था; साधक उनसे साधना का उच्च तत्त्व प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता था; उनके सम्पर्क में आकर हताश चित्त उत्साह से और भग्न हृदय आशा के हिलोरों में झूमने लगता था; और इधर देखिए तो ये ही महाराज बालक के साथ बालक बनकर खेल रहे हैं !
जो लोग श्रीरामकृष्ण देव के इस मानसपुत्र के घनिष्ठ सम्पर्क में आये थे, वे कहते हैं कि महाराज* अमित ब्रह्मतेज सम्पन्न थे, उनकी बहुमुखी शक्ति स्रोतस्वती की भाँति शत-शत दिशाओं में प्रवाहित होती थी। किन्तु इतना तेज, इतनी शक्ति किस तरह मृण्मय आधार में इतनी शान्त रहती थी, इसे भला कोई कैसे जाने ? बिजली का तार देखने में तो निर्जीव है, किन्तु स्पर्श करने से मालूम पड़ता है कि उसमें कितनी अमोघ शक्ति छिपी है। कहते हैं कि ब्रह्मज्ञ पुरुष का शरीर मृण्मय नहीं होता-चिन्मय होता है। किन्तु इन चिन्मय पुरुष के संस्पर्श में आने से यह बात सहज ही समझ में नहीं आती थी। अहा, किस अलौकिक प्रेम से वे सबको भुलाने रखते थे !
जो भी इन पुरुषोत्तम के चरणों के निकट उपस्थित हुआ है- चाहे वह निर्मलचित्त साधु हो, भक्त हो या ब्रह्मचारी, चाहे जीवन के पापों से तप्त, दुःखी, पतित और कलंकित हो- उसने देखा है और अपने हृदय के भीतर इस सत्य की अनुभूति की है कि जिसके साथ बात करने में भी मन संकुचित होता है, ऐसे
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*श्रीरामकृष्ण संघ में जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द संक्षेप में ‘स्वामीजी’ के नाम से परिचित हैं, उसी प्रकार स्वामी ब्रह्मानन्द ‘महाराज’ के नाम से।
उपेक्षित व्यक्ति को भी महाराज अपनी स्नेह धारा में डुबो ले रहे है ! आत्मीय-स्वजन जिस व्यक्ति का नाम तक सुनने में संकुचित होते थे, उसकी भी पूछताछ महाराज कितने स्नेह-विगलित स्वर से करते थे ! जो अभागा सबके द्वारा परित्यक्त था, उसे भी महाराज ने कितने प्रेम से बाँधा था ! जिसके लिए कहीं भी स्थान नहीं, महाराज का द्वार उसके लिए सदैव खुला रहता था। इस उदार विश्वप्रेम के अमृत का आस्वादन करनेवाला सहसा यह धारणा नहीं कर पाता था इन निश्चिन्त. शान्त, शिवमय पुरुष महान, त्याग कठोर वैराग्य अतुलनीय तितिक्षा, कितना, ज्ञान, कितनी भक्ति, निष्काम कर्म के प्रति कैसी लगन है, जो संसार के मोह का निवारण करनेवाली एक महाशक्ति के उद्धोधन के लिए शान्त भाव से प्रतीक्षारत हैं ! भिक्षु उनकी अप्रत्याशित करुणा प्राप्त कर कृतार्थ हो लौटता था; ज्ञानी ज्ञान-चर्चा में उनकी इति नहीं कर सकता था; भक्त उस भक्तिसिन्धु में तैरकर किनारा नहीं पा सकता था; कर्मी कर्म-कौशल में उनसे हार मान लेता था; संशयी विश्वास-बल प्राप्त करता था; संसारी-धर्म का गूढ़ आर्थ समझ लेता था; रसिक उनकी रस-स्फूर्ति से हँसी से लोटपोट होने लगता था; साधक उनसे साधना का उच्च तत्त्व प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता था; उनके सम्पर्क में आकर हताश चित्त उत्साह से और भग्न हृदय आशा के हिलोरों में झूमने लगता था; और इधर देखिए तो ये ही महाराज बालक के साथ बालक बनकर खेल रहे हैं !
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